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आचार्य श्रीराम शर्मा >> ब्रह्मवर्चस् साधना की ध्यान-धारणा

ब्रह्मवर्चस् साधना की ध्यान-धारणा

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :144
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4270
आईएसबीएन :0000

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ब्रह्मवर्चस् की ध्यान धारणा....

 

२. सविता अवतरण का ध्यान


अन्नमय कोश के जागरण में सविता शक्ति का उपयोग किया जाता है। पंचकोश साधना गायत्री उपासना का ही उच्चस्तरीय योगाभ्यास है। गायत्री मंत्र एवं उसके जपात्मक अनुष्ठान की परिधि को गायत्री माता कहते हैं। ज्ञान और विज्ञान के आधार वेद-ज्ञान की जननी होने के कारण उसे वेदमाता भी कहा जाता है। गायत्री का प्राण सविता है। उच्चस्तरीय गायत्री साधना में सविता शक्ति का आश्रय लिया जाता है। पाँचों कोशों के जागरण में हर बार उसी के सहारे प्रगति होती है।

अन्नमय कोश को जागृत करने में भी सविता शक्ति का ही आह्वान-अवतरण किया जाता है। ध्यान के प्रारंभिक भाग में सविता को इष्ट, लक्ष्य, उपास्य, आराध्य रूप में अंत:करण में प्रतिष्ठित किया जाता है। एकत्वसमर्पण में उसी के साथ घनिष्ठता, तन्मयता स्थापित की जाती है। अन्नमय कोश की साधना में ध्यान-धारणा द्वारा काय कलेवर में, जीवन-शरीर में सविता के आह्वान-अवतरण की भूमिका बनती है।

स्थूल शरीर का केंद्र नाभि को माना गया है। गर्भस्थ बालक के शरीर में माता के अनुदान नाभि मार्ग से ही पहुँचते हैं, अस्तु वही प्रथम मुख है। प्रत्यक्ष शरीर में तो मस्तिष्क एवं हृदय को प्रधान अंग माना गया है, किंतु जीवन शरीर का मध्य केंद्र नाभि है। आयुर्वेदीय नाड़ी परीक्षा में नाभि केंद्र को शरीर की धुरी माना गया है। योग नाडियों का उद्गम भी वहीं से बताया गया है। नाभि को धुरी इसलिए कहा गया है कि वह स्थान शरीर के ठीक बीचोंबीच है। धुरी मध्य में ही रहती है।

शरीर के जीवित रहने का चिह्न उसमें पाई जाने वाली ऊष्मा है। मृतक का शरीर ठंडा हो जाता है, पेट की जठराग्नि से ही भोजन पचता है। रक्त की गर्मी ही उसके संचार का कारण है। यह संव्याप्त अग्नि ही रोगों से लड़ती है। यही उत्साह एवं स्फूर्ति प्रदान करती है। ओजस् इसी को कहते हैं। पृथ्वी पर पाये जाने वाले अग्नितत्त्व का केंद्र सर्य है। सूर्य यदि ठंडा होने लगे तो यह पृथ्वी भी ठंडी हो जाएगी। काय-कलेवर में चेहरे पर आकर्षण, आँखों में चमक एवं गतिविधियों में सक्रियता दिखाई पड़ती है, उसका मूल आधार यह जीवन अग्नि ही है, इसमें कमी पड़ जाने पर काया बलिष्ठ होते हुए भी निर्जीव जैसी बन जाती है। मुर्दनी और उदासी छाई रहती है। आलसी और प्रमादी लोगों में सब कुछ ठीक-ठाक होते हुए भी जब ऊर्जा की कमी रहती है तो वही पिछड़ेपन का-कायिक दुर्बलता का प्रधान कारण बन जाता है।

अन्नमय कोश की ध्यान-धारणा में सविता देव का प्रवेश नाभि मार्ग से होकर समस्त स्थूल शरीर और जीवन शरीर में होता है। श्रद्धा ही शक्ति बन जाती है। संकल्पों का चुंबकत्व असाधारण है। ध्यान में यह श्रद्धा और संकल्प का सम्मिश्रण ही वह तत्त्व है जिसके बल पर भौतिक अनुकूलताओं से लेकर सूक्ष्म जगत की दिव्य शक्तियों तक को अपने निकट खींच बुलाया जाता है। ध्यान का स्तर यदि कल्पनाएँ मात्र हो तो उसका परिणाम भी शिथिल रहेगा, पर यदि उस भाव चित्र को सुनिश्चित तथ्य की तरह श्रद्धाविश्वास के रूप में अपनाया जाय तो उसकी प्रतिक्रिया भी ऐसी ही होगी मानो साक्षात् सविता नाभिचक्र के अग्निचक्र के, माध्यम से समस्त शरीर में प्रवेश कर रहे हों।

यह ध्यान जितना ही श्रद्धासिक्त होता है, उतनी ही तात्कालिक एवं दूरगामी प्रतिक्रिया सामने आती है। ध्यान के समय भी शरीर में गर्मी बढ़ती प्रतीत होती है, श्वास की गति और रक्त-संचार में तीव्रता का अनुभव होता है, तापमान बढ़ गया सा लगता है। पीछे भी

प्रतीत होता है कि पहले की अपेक्षा सक्रियता बढ़ गई है, उदासी दूर हुई है और उत्साह एवं स्फूर्ति में उभार आया है।

ध्यान के समय समस्त काया में सविता शक्ति का संचार, जीवन शरीर में ओजस् का उभार, व्यक्तित्त्व में नव-जीवन का संचार करता है। अधिक काम करने के लिए उमंग उठती है और इच्छा होती है कि कामों का स्तर ऐसा हो जो प्रतिष्ठा एवं संतोष की अभिवृद्धि कर सके। काम भी गौरवान्वित हो और कर्ता को भी यश मिले, तभी क्रिया की सार्थकता है। इस प्रकार की स्थिति बनाने के लिए ऐसी व्यवस्था परक योजना भी बनती और सफल होती है। साथ ही यदि सूक्ष्म प्रेरणाएँ भी उसी स्तर की उठने लगें और अंतःक्षेत्र में भी उसी प्रकार का ताना-बाना बुना जाने लगे, तो दोहरा लाभ होता है। बाहर के प्रयत्न तो कई बार भार-भूत भी लगते हैं और आंतरिक उत्साह की कमी से वे शिथिल, असफल भी होते हैं किंतु यदि अंत:करण उभरने लगे तो अनायास ही गतिविधियाँ प्रगति की दिशा में अदम्य उत्साह के साथ दौड़ने लगती हैं। विकास-क्रम का प्रथम चरण यह आंतरिक उत्साह ही है।

अन्नमय कोश में सविता देव के अग्नि रूप में प्रविष्ट होने, समस्त शरीर का अग्नि पिंड, अग्नि पुंज, अग्निमय, सवितामय बन जाने की ध्यान-धारणा एक नई आत्मानुभूति प्रस्तुत करती है। यह मात्र आत्म-संकेत के आधार पर मिलने वाली अनुभूति या स्फुरणा नहीं है। इस धारणा के पीछे चिंतन चुंबकत्व द्वारा विश्व-व्यापी सविता प्रवाह में से महत्त्वपूर्ण अंश अपने में धारण करते चलने का ऐसा लाभ भी है, जिसे साधक क्रमशः आत्मसत्ता में अवतरित होते हुए प्रत्यक्ष देखता है।

(ग) सविता शक्ति नुकीले किरण पुंज के रूप में, नाभि में प्रविष्ट होती है। उसके आघात से नाभिचक्र में तीव्र हलचल, तीव्र प्रकाश पैदा होता है। उसका संचार सारे शरीर में होता हुआ अनुभव करें।

(घ, ङ, च) सविता शक्ति शरीर को चलाने वाली जैवीय अग्नि-ऊर्जा के रूप में बदल रही है। प्रकाशित धाराओं के रूप में उसका संचार सारे शरीर में हो रहा है। शरीर अग्नि के गोले के रूप में अनुभव होता है। शरीर की हर इकाई दिव्य संस्कार से ओत-प्रोत होती है। अंग-प्रत्यंग में ओज, उत्साह, कर्मठता का उभार अनुभव करें।

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    अनुक्रम

  1. ब्रह्मवर्चस् साधना का उपक्रम
  2. पंचमुखी गायत्री की उच्चस्तरीय साधना का स्वरूप
  3. गायत्री और सावित्री की समन्वित साधना
  4. साधना की क्रम व्यवस्था
  5. पंचकोश जागरण की ध्यान धारणा
  6. कुंडलिनी जागरण की ध्यान धारणा
  7. ध्यान-धारणा का आधार और प्रतिफल
  8. दिव्य-दर्शन का उपाय-अभ्यास
  9. ध्यान भूमिका में प्रवेश
  10. पंचकोशों का स्वरूप
  11. (क) अन्नमय कोश
  12. सविता अवतरण का ध्यान
  13. (ख) प्राणमय कोश
  14. सविता अवतरण का ध्यान
  15. (ग) मनोमय कोश
  16. सविता अवतरण का ध्यान
  17. (घ) विज्ञानमय कोश
  18. सविता अवतरण का ध्यान
  19. (ङ) आनन्दमय कोश
  20. सविता अवतरण का ध्यान
  21. कुंडलिनी के पाँच नाम पाँच स्तर
  22. कुंडलिनी ध्यान-धारणा के पाँच चरण
  23. जागृत जीवन-ज्योति का ऊर्ध्वगमन
  24. चक्र श्रृंखला का वेधन जागरण
  25. आत्मीयता का विस्तार आत्मिक प्रगति का आधार
  26. अंतिम चरण-परिवर्तन
  27. समापन शांति पाठ

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